मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

खीज़ (Sulk)

आज फिर वही देखना दिखाना, वही मिलना मिलाना।  लड़के वाले ना हुए भगवान हो गए।  मैंने सुना था कि शादी दो आत्माओं का, दो परिवारों का मिलन होता है।  गृहस्थी की गाडी दोनों की आपसी साझेदारी से चलती  है।  फिर एक को दूसरे की  इतनी खामियां निकालने का, इतना दबाव डालने का हक़ किसने दे दिया।  कोई कहता है मोटी है , कोई कहता है नाटी है , किसी के लिए मै ही लम्बी हो जाती हूँ तो किसी के सांवली हूँ।  कुछ कहते हैं, हमारा बेटा सांवला है ना, अगर लड़की भी सांवली ले आई तो पूरी पीढ़ियों में ही गड़बड़ हो जाएगी।  और जिनके बेटे गोरे हैं उन्हें तो सांवली लड़की चाहिए ही नहीं, उनके बेटों में मेल नहीं खाएगी, जैसे बेटों कि शादी न हुई आईना दिखायी हो गया, बहु को बेटे का प्रतिबिम्ब ही होना चाहिए।  जैसे लड़की न हुयी मिट्टी का पुतला हो गया, जैसे मन करेगा वैसे ही मूरत ढली ढलाई चहिये। एक बात तो तय है, लड़का चाहे जैसा भी हो, लड़की सबको मिस वर्ल्ड ही चाहिए।  जैसे माता पिता ने किसी मिस वर्ल्ड से कम को जन्म देकर पाप कर दिया हो। और बात केवल इतनी सी नहीं।  मैं भी पढ़ी लिखी हूँ , लाड प्यार से पली बढ़ी हूँ।  मेरी शिक्षा और परवरिश के समय मेरे माता पिता ने मुझमे और मेरे भाइयों में कभी कोई फर्क नहीं किया। और आज जब मै कमाने लगी हुँ, तो ब्याह के बाद मेरी कमाई पर केवल ससुराल वालों का हक़ होगा और मेरे माता पिता का कोई हक़ नहीं होगा?  ये कैसा नियम है कि जिस माली ने पेड़ लगाया, उसे अपने खून पसीने से सींच कर बड़ा किया , फल देने लायक बनाया आज उन्ही फलों पर उसका कोई हक़ नहीं! मै ये नहीं कहती कि लड़की को अपने ससुराल वालों कि बात नहीं माननी चाहिए, और ये भी जानती हूँ कि ससुराल कि जरूरतों को हमेशा अपनी पूरी क्षमता से पूरा करना चाहिए, पर क्या साथ साथ उसका ये हक़ नहीं कि वो अपने माता पिता के जरूरतों में भी काम आए? ये कैसा नियम है कि पेड़ लगाओ और फिर उसे उखाड़ कर दूसरे के आँगन कि शोभा बना दो, और उसपे हक़ भी न जताओ।

समाजिक परम्पराओं के नाम पर होने वाला अन्याय यहीं ख़त्म नहीं होता। जबसे दहेज़ को गैरकानूनी किया गया है, लोग दहेज़ को दहेज़ केह कर तो नहीं मांगते लेकिन इसी दहेज़ रुपी दानव को एक साफ़ सुथरा चोंगा पहना कर पेश जरुर करते हैं।  कोई कहता है, हमारा बेटा इंजीनियर है, डॉक्टर है, हमने इतने खर्च किये हैं इसकी पढाई लिखाई पर, इतना लेना तो बनता है ना, आखिर सुख तो आप ही कि बेटी करेगी। जैसे अपने बेटों को इन लोगों ने इसी उम्मीद में पढ़ाया लिखाया था कि विवाह के समय सुध समेत लड़कियों के पिता से एक ही बार में वसूल लेंगे।  और कुछ लोगो कि बातें तो जैसे कड़वे करेले को शक्कर की चासनी में डुबोई हुई। कहते हैं, अरे भाई साहब, आप और हम तो अब एक ही परिवार का हिस्सा हैं, हम आपसे कुछ मांग थोड़े न रहे हैं, आप तो बस ब्याह का खर्चा दे दीजिए, अब लड़के कि शादी में घर से खर्च करें, अच्छा थोड़े न लगता है।  जैसे लड़कियो के ब्याह में तो माँ बाप को कोई खर्च ही नहीं होता , पर वो तो नहीं मांगने जाते हैं किसी से। और तो और लोग कहते हैं, अब बेटी का ब्याह करने निकले हैं घर से तो इतना तो सोचकर ही आये होंगे।  

कितनी दोहरी मानसिकता है हमारे समाज की।  जो लड़कियां मजबूरी वश अपने परिवार के भरण पोषण के लिए तन का व्यापार करती हैं, उन्हें तो लोग बड़ी आसानी से गाली देते हैं, बाज़ारू कहते हैं, पर उन माँ बाप को कोई कुछ नहीं कहता जो खुले आम अपने बेटों का व्यापर करते हैं, और परिस्थिती  कि विडंबना तो देखो, बिकते तो बेटे हैं पर अपना घर छोड़कर बेटियों को जाना पड़ता है।  ये लड़के वाले किसी कि बेटी को लेकर जाते हैं फिर भी पैसे की मांग करते हैं, जैसे जीवन भर खिलाने का खर्च एडवांस में लेकर जा रहे हों। कभी कभी लगता है, इससे तो अच्छा है कि लड़कियां प्रेम विवाह ही रचाए या फिर शादी ही न करे।  पर तब भी समाज उन्हें चैन से नहीं रहने देता, तरह तरह कि कहानियाँ गढ़ता है उनके चरित्र को लेकर।  मतलब अगर प्रेम विवाह करो तो चरित्र पर लांछन और माँ बाप कि मर्जी से शादी करो तो माँ बाप कि कमर टूट जाती है।  

पर असहनीय दुःख तो तब होता है, जब ये सब स्वयं पर बीतने के बाद भी अपनी शादी के बाद यही लड़कियां स्वयं भी इन्ही दकियानूसी विचारधाराओ और परम्पराओं का हिस्सा बन जाती हैं।  ओह, कैसा है ये समाज, किसने बनाई ये परम्पराएं। मन खीज़ जाता है।