बुधवार, 15 जनवरी 2014

लगाकर बापू की तस्वीर(lagakar bapu ki tasveer)

हम पहुँच गए लेने उन नेता जी का इंटरव्यू,
पूछा, "सर जी, कैन आई आस्क यू कुएसचनस् वेरी फ्यू,"
"व्हाई नॉट ", कहा नेता जी ने बड़े शान से,
पर जरा प्रचार करियेगा हमारी ईमानदारी का ध्यान से।

कहा हमने भी नेता जी को, सर जी, जैसी आपकी मर्ज़ी,
पर ज़रा बताइये, आपकी इमानदारी असली है या फ़र्ज़ी,
"अरे कैसी बातें करते हैं" कहकर नेता जी उछल पड़े,
दिल से गालियां, मुंह से मीठे मीठे बोल निकल पड़े।

हमने भी कहा "नेताजी, घोटालों में आपका बड़ा नाम है"
अरे "खाख" बोले वो, "हम तो यूहीं बदनाम हैं"
अख़बारों में कितने भी नाम हों, हम तो सच्चे भक्त हैं गांधी के,
बुरा नहीं सुनते, डरते नहीं, इल्ज़ामों की आंधी से।

हमने भी नेताजी के केबिन में अपनी आखें घुमाई,
हर जगह गांधी जी की तस्वीरें टंगी नज़र आई,
कच्चा चिठ्ठा जब खोला किसी औने पौने कर्मचारी ने,
तब जाकर दिखी नेताजी की पूरी सच्चाई।

तब जाकर श्रीमान बात समझ में आयी,
क्यूँ हर जगह हमे दे रहे थे गांधी ही गांधी दिखायी,
हमने भी जाने किन लुटेरों को देश कि बागडोर है थमाई,
कहतें हैं इस देश की दशा दिखाएंगे बदल के,
ये देश है हमारा, नेता हमीं हैं कल के।

ईमानदारी तो इन नेताओं ने खूंटी पर टांग दिया है,
और कहते हैं, महात्मा गांधी के बगल का स्थान दिया है,
क्या हुआ अगर टांगकर बापू की तस्वीर,
घूसखोरी, घोटाले, लूट में लगें हैं ये राजनीति के वीर,
ईमानदारी इनकी अब बस किताबों में बसती है,
और नाम लेते हैं बापू का, कहते हैं ये तो बापू की भक्ति है,
क्यूंकि गाँधी की तस्वीर तो घूसखोरी के नोटों पर भी छपती है।







सोमवार, 13 जनवरी 2014

आईना (Aaina)


ये आईना रोज मुझे क्या दिखा देता था,
मुझको हर दिन मुझसे मिला देता था,
एहसास करा देता मुझको मुझपन का,
क्यूँ मेरे अस्तित्व को हिला देता था।

वो नाकामयाब सी सूरत, जो हँसने से पहले मायूसियों मे छिप जाती थी,
वो पांच फूटिया कद, जो कही से कही तक नहीं पहुँचता,
वही दो आँखे जिसे किसी की तलाश नहीं थी,
वही दो पाँव, जो चलने से पहले थक चुके थे।

वो अनबुझ चेहरा, जिसमे कोई आब न था
वो सुनी बुझी आखे, जिनमे कोई ख्वाब  न था,
वो फूली सी नाक, जो खुशिओं की खुशबू तक न पहचानती,
वो खड़े से कान, जो किसी की आहट तक न सुनना चाहते।

वो ओंठ थे या दो खिंची रेखाएं, जो चिपकी सी  मुस्कान लिए फिरते थे
वो दो हाथ, जो किसी के एहसास से भी डरते थे
ये सफ़ेद-सा रंग, जो मुझपर पुता था
ये क्यूँ मुझको बदसूरत, बदरंग बना देता था।

पर एक दिन मैं अपने बिस्तर से उठी, रोज की तरह नहाई धोई
सुनी जिन्दगी की एक और सुबह खोई,
अपने सफ़ेद रंग को और साफ किया,
और आईने के सामने जा खड़ी हुई।

आज फिर इस आईने ने मुझे क्या दिखा दिया,
मुझको उसने ये क्या बना दिया,
जिन्दगी से मुझको लड़ना सिखा दिया,
मुझमे छिपे मै को मुझसे मिला दिया।

आज मै सिर्फ़ जिन्दा नही जी रही हूँ
कामयाबी मेरी और मै कामयाबी की हो रही हूँ
मुझे हर चीज खूबसूरत लग रही है,
मै दुनिया की और दुनिया मेरी लग रही है।

आज ऐसे मेरी ज़िन्दगी खलिखला रही है,
जैसे मेरे होठ नही मेरी जिन्दगी  मुस्कुरा रही है.
खुला आसमान बाँहें फैलाये मेरी ओर ताक रहा है,
चमकता सूरज बहता पानी खिलता फूल जैसे सबकुछ  मेरे लिए है।

आज फिर ये आइना मुझे क्या दिखा रहा है,
मुझको हर पल मुझसे मिला रहा है
एहसास करा  रहा है मुझको मुझपन का,
जैसे मेरे अस्तित्व  को नयी दिशा दिखा रहा है,
मुझको मुझसे ही प्यार करना सिखा रहा है।

वही मायुसिओं भरी सूरत खिलखिलाने लगी है,
वही पांच फूटिया कद अब हर जगह पहुँचने की ताकत रखती है,
वही आँखें अब सपने संजोने लंगी है,
वही दो पाँव जैसे अब अथक चलते जाने को तैयार खड़े हैं।

ये आबो भरा चेहरा सुलझता जा रहा है,
ये ख्वाबों भरी आँखें दमकती जा रही है,
ये वही दो हाथ जिनमे आज भिवषय बनाने की शक्ति है,
ये सफ़ेद-सा रंग मुझे गोरा बना रहा है,
मुझमे बदसूरती से सुंदरता ला रहा है,
ये आईना सचमुच मुझे सच दिखा रहा है,
ये आज मुझको मुझसे मिला रहा है। 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

इससे पहले कि जीवन हाथों से फिसल जाए (Is se pehle ki jivan haathon se fisal jaaye)

 हम अकसर जीवन भर कुछ न  कुछ पाने की होड़ में लगे रहते हैं। कभी विदेश में शिक्षा, कभी  नौकरी, कभी तरक्की , कभी घर, कभी बड़ी कार, कभी कुछ और।पर इन चीज़ों का जीवन में क्या और कितना महत्त्व है, इस सवाल पर आज थोड़ा विचार करने का मन कर रहा है।  कल मैं अपने एक मित्र का ब्लॉग पढ़ रही थी जिसमे उन्होंने एक सिनेमा दसविदानियाँ से प्रेरित होकर इस बात का विश्लेशण किया कि उनके जीवन में घट रही वर्त्तमान घटनाओं को संचालित करने का प्रेरणा स्रोत क्या है और अगर उन्हें पता चले कि उनके जीवन  में कुछ ही दिन शेष बचे हैं  तो वो कौन सी इच्छाएँ हैं  जिन्हें वो अपनी मृत्यु के पहले पूरी करना चाहेंगे और  आश्चर्य  की  बात थी कि उन्होंने पाया कि आज उनका जीवन जिन घटनाओं या  इच्छाओं से प्रेरित हो रहा था,आज जहाँ वो काफी चीज़ें किसी को प्रभावित करने के लिए कर रहे थे, जीवन की  एक बहुत  सीमीत अवधि में, जीवन के अंतिम  क्षणों में  दरअसल उनका कोई महत्त्व ही नहीं था।(उनके शब्दों में कहें तो "I swear, you wont want to impress anybody, when you know, you are to die in few days.") बल्कि ऐसी अवस्था में वो  जीवन से बिल्कुल ही भिन्न अपेक्षाएं  रखते थे।

ऐसा हम मनुष्यों के जीवन में बहुत ही सामान्यतः रूप से होता रहता है।  अकसर हम जीवन के किसी पड़ाव या अवधि का महत्त्व, अर्थ और मक़सद तब समझ पाते हैं जब जीवन का वो पड़ाव, वो दौर या तो गुज़र चूका होता है या अपने आखिरी क्षणों में होता है।  शायद इसीलिए किसी ने कहा है कि मनुष्य गलतियों का भंडार है। जब जो पास होता है तब उसके महत्त्व का अहसास नहीं होता और जब वो दूर हो जाता है तब जाकर उसकी अहमियत पता चलती है।  उदाहरणतय हमारा बचपन , जब बच्चे थे तो बड़े होने का मन करता था। बड़े लोगों के प्रभुत्व को देखकर लगता था कि कितना अच्छा होता अगर हम भी बड़े होते, बस अपनी ही अपनी चलाते।  पढ़ना न पड़ता, सबकी बात न सुननी पड़ती, सब हमारी बात सुनते। पर आज जब बड़े हो गए, तब समझ आया कि क्या दिन थे वो बचपन के।  बेफिक्री, आज़ादी, न कोई जिम्देदारी न ज़वाबदेही। न कोई चिंता, न दुनिया समाज कि सुध , न जीवन के इस भागम-भाग में कहीं पीछे रह जाने का डर। जब मन किया खेलने चले गए, बारिश में बाँहें खोल के भीग लिए, खेल में धूल धुरसित हो लिए, दोस्तों से जब चाहे लड़े, जब चाहे मिल लिए, तब कोई अहम् की दीवार नहीं आया करती थी दोस्तों के बीच। आज की तरह सोचना न पड़ता था कि कैसे माफ़ी मांगे, कैसे झुकें, कैसे बात करें, किसकी गलती थी इस बात से कोई फर्क न पड़ता था। बस एक स्वछंद पंक्षी की तरह अपनी ही धुन में उड़ा करते थे। आज भी  जब उन पलों कि याद आती है तो एक मुस्कान स्वतः ही चेहरे पर बिखर जाती है। कुछ ऐसा ही महसूस होता है मुझे अपने इंजीनियरिंग के दिनों के लिए भी। जब कॉलेज में दाखिला हुआ था तो कितना लम्बा समय लगता था चार वर्ष। पर कॉलेज के वो चार साल कब पंख लगाकर फुर्र हो गए पता ही नहीं चला।  अब पीछे मुड़कर देखो तो लगता है कि जैसे उन चार सालों में कुछ किया ही नहीं।  कितना कुछ कर सकते उस समय में पर समय कब सूखे रेत की तरह हाथों से फिसल गया, पता ही नहीं चला। ऐसा लग रहा है जैसे कितना बदल गया है सब। आज एक डर सा लग रहा है, कहीं पूरा जीवन ही हाथों से फिसल न जाए और हम ये सोचते रह जाए कि इस जीवन में किया क्या?

अपने इन्ही मित्र के ब्लॉग से प्रेरित होकर जब मैंने भी इन्ही की भांति अपने जीवन का विश्लेषण किया तो मुझे भी यही लगा कि आज जिन चीज़ो को पाने कि होड़ में मैं लगी हूँ, शायद जीवन के आखिरी पड़ाव पर इनका कोई महत्त्व ही न होगा।  दफ्तर के काम में उत्कृष्टता पाना, अधिकाधिक पदोन्नति, नयी बड़ी कार लेना, अच्छा बड़ा 3 कमरे वाला फ्लैट लेना, थोडा वजन कम करना, आखिर इन बातों में से कौन सी बात ऐसी होगी जो जीवन के आखिरी पलों तक मुझे संतुष्टी और सुख का अनुभव कराएगी, और उत्तर यही मिला कि शायद इनमे से कुछ नहीं। तो आखिर क्या हो जीवन का लक्ष्य? अब लगता है कि एक बार मिले इस जीवन को इन भौतिकताओं, इन क्षणिक सुखो का उपभोग करने में गँवा दिया तो शायद मैं आज दूसरों की नज़र में एक हाई प्रोफाइल, हाइली सोशल, एडवांस्ड, कम्पीटेंट  का दर्ज़ा तो पा लूंगी मगर क्या ये सचमुच मेरे ह्रदय और आत्मा के लिए सुखकारी होंगे? मृत्यु शैया पर लेटी जब मेरे पुरे अतीत का चलचित्र मेरी आखों के सामने घूमेगा तब क्या इन चीज़ों, उपलब्धियों की याद भी आएगी मुझे? अब लगता है कि इन क्षणभंगुर सुखो को क्षण भर दरकिनार कर अगर दो पल दूसरों के सुख-दुःख में शरीक न हुए तो क्या किया?  किसी रोते चेहरे को हँसी न दी तो क्या किया? किसी भूखे कि थाली में दो रोटी न रखी तो क्या किया? किसी गैर को सीने से लगाकर अपना न बनाया तो क्या किया? किसी मासूम बच्चे कि आखों में भविष्य के सपने न भरे तो क्या किया? पूर्णतः सक्षम होकर किसी असक्षम का सहारा न बने तो क्या किया?

मेरे मित्र की भांति ही आज मैं भी सोची कि अगर सचमुच अगर मुझे पता चले की मेरे जीवन में भी अब कुछ ही दिन शेष बचें हैं तो मैं मरने से पहले क्या करना चाहूँगी, और तब जीवन के सही लक्ष्य मिले, वो लक्ष्य, मेरी वो इच्छाएं, जो शायद मेरे आखिरी समय तक मेरे साथ रहेंगे, जिनकी पूर्ति का खुशी उस पड़ाव पर भी मुझे सुख और संतोष देगा। शायद इससे पहले की पूरा जीवन सचमुच हाथों से फिसल जाए, मैं अपनी ये इच्छाएं अवश्य पूरी करना चाहूंगी और तभी मैं कहना चाहूंगी  इस दुनिया को दसविदानियाँ यानि अलविदा।


(आभार : श्री नितेश गुप्ता जी का जिनके ब्लॉग से प्रेरित होकर मैंने ये ब्लॉग लिखा , http://das-vidaniya.blogspot.in/2009/05/dasvidaniya.html )










सोमवार, 6 जनवरी 2014

व्यंग्य: मारकेट में नया भगवान आया है (Market mein naya bhagwaan aaya hai)

टीवी पर अक्षय कुमार और परेश रावल की "ओ माय गॉड" चल रही थी। देखते-देखते एक जुड़ाव सा लग रहा था, साथ ही चेहरे पे एक मुस्कान सी थी, एक व्यंग्यात्मक मुस्कान। वो सीन बड़ा अच्छा लगा कि भाई ईश्वर कि आराधना न हुई व्यापर हो गया। भगवान SSC कि परीक्षा में पास करा दो, पांच मंगलवार सिद्धि विनायक चल कर आऊंगा। भगवान मेरी पसंद कि लड़की से शादी करा दो, 101 नारियल चढ़ाऊंगा। तिरुपति में बाल दान कर आए और सोचो ज़रा, भगवान् इन बालों का क्या करते होंगे? सुबह-सुबह घर का दरवाज़ा खोला और क्या देखते हैं, बाल ही बाल, सफ़ेद बाल, काले बाल, सीधे बाल घुंघराले बाल, डैंडरफ वाले बाल, जुएँ वाले बाल।  मन में विचार आया, सचमुच दिन बन गया होगा भगवान् का। अलग से नगरपालिका बिठानी पड़ी होगी भगवान् को। और पोंगे-पंडितों की भगवान् पर कॉपीराइट वाली बात ने तो दिल जीत लिया, सच ही तो दिखाया है इस फ़िल्म में। 

पिछले साल जब मैं छुट्टियों में घर गयी थी तो मेरी माँ बड़ी परेशान थीं। रोज़ पंडित-ब्राम्हणो का आना जाना लगा रहता था। भैया की कुंडली दिखाकर सबसे यही पूछती रहती " पंडित जी, छोरे का ब्याह न हो रहा है, नौकरी चाकरी भी ज्यादा अच्छी नहीं है, पैसे भी कम देते हैं और मेनेजर भी सर पर बैठा रहता है, रात-रात भर काम में लगा रहता है मेरा छोरा, कुछ उपाय बताइए " और पंडित जी भी किसी बुद्धिजीवी  सर्वज्ञानी की तरह सुनकर मेरे बेचारे भाई की कुंडली में सारे ब्रम्हांड के ग्रह नक्षत्र उतार लाते।  पांच हज़ार एक रुपये पर बात तय कर दी की ग्रह शांति पूजा कराएँगे और गारंटी भी दे दी कि मेनेजर तंग न करेगा। मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया " डायरेक्ट सपने में जाकर मेनेजर को डराये आओगे क्या कि अविनाश कुमार जी को तंग न करे, आपका शागिर्द है। " पंडित जी तमतमा गए और माँ को बोले "ये कैसी उदंड छोरी है, हमे तो आप इज़ाज़त ही दीजिए।" माँ बड़े ही बेबस आखों से पंडित जी के सामने हाथ जोड़कर बैठ गई।  "नादान है बाबा " कहकर मुझे वहाँ से चलता कर दिया।  माँ जब बाबाजी को भेजकर आयी तो ये कहे बिना रहा न गया "ये पंडित जी तो एक ही बॉल में क्लीन बोल्ड हो गए। "

अगली सुबह माँ ने सवेरे पाँच बजे उठा दिया।  मुझे लगा कुछ बात हो गई। कमरे से बाहर निकली तो देखा हॉल में सब टीवी के सामने हाथ जोड़े बैठे हैं।  उन दिनों की याद आ गयी जब टीवी का ज्यादा चलन न था, मोहल्ले के एक घर में टीवी हुआ करता था और जब महाभारत आता तो पुरे मोहल्ले के लोग सारा काम छोड़कर हाथ जोड़े टीवी के सामने बैठ जाया करते थे। लगा कहीं सपना तो नहीं देख रही मैं? तभी कानो में कुछ स्वर फूटे "समोसा खाते हो?" "जी, खाते हैं।" "चटनी के साथ खाते हो?" "नहीं बाबाजी, अच्छी नहीं लगती।" "तो कृपा कैसे आएगी? इसी चटनी ने कृपा रोक के रखी है, जाओ समोसा चटनी के साथ खाओ, कृपा आनी शुरू हो जायेगी।" सुनकर लगा कि ये क्या है, ये सब लोग समोसा चटनी खाने सुबह-सुबह टीवी के सामने हाथ जोड़े बैठे हैं? अब तक मैं भी टीवी क सामने पहुँच गयी थी। पर देखा, ये कोई नए बाबा का प्रवचन था।  मैं गुस्से से माँ को बोली "क्या है ये माँ, आप ये दिखने सुबह-सुबह उठाकर लायीं हैं मुझे और इसके लिए यहाँ पूरी मंडली जमा राखी है? पिछली बार भी कोई बाबा-वाबा को भजती थी ना आप, क्या कच्चा चिट्ठा निकला उनका? पर माँ ने बड़े प्यार और सरलता से कहा "सुन ले बेटा, कुछ भला ही हो जाएगा। " लगा सचमुच, कैसी होती हैं ये माएँ, बच्चों कि भलाई के नाम पर कोई भी उनको ठग लूट सकता है।  सोचकर अच्छा लगता है कि इतना स्नेह करती हैं हमसे मगर कोई भी इसका फायदा उठाये ये अच्छा नहीं लगता। खैर, माँ के लिए मैं भी उन बाबाजी के प्रवचन सुनने लगी। इनकी बातें बाकियों जैसी ही थी मगर समस्याओं के उपाय नए लग रहे थे और थोड़े अजीब भी। समोसा चटनी के साथ खाओ, खाने के बाद हाथ रुमाल से पोछो, लक्ष्मी चाहिए तो हर साल नया मँहगा पर्स खरीदो, बीबी-को सिनेमा ले जाओ, मंदिर में पचास नहीं पांच सौ चढ़ाओ। किसी ने कहा -"बाबाजी, डाक्टरी कि परीक्षा में बार बार फेल हो जाता हूँ, कुछ उपाय बताओ। "इसपर बाबाजी कहते हैं, "अपनी सभी कॉपी किताबों पर राम जी का नाम लिखो और परीक्षा में भी उन्हें याद करके ही प्रश्न पत्र हल करो, इस बार पास हो जाओगे। " मैं मन ही मन हंस पड़ी, सोची कि अगर राम का नाम लेकर बिना पढ़े लिखे ही परीक्षा में पास हो गए तो इस देश क मरीजो का राम नाम सत्य होने से तो राम भी न बचा सकेंगे। खैर, मुझे मालुम था कि उठकर जाने और माँ से बहस करने का कोई फायदा नहीं होगा। 

मेरी छुट्टियों की हर सुबह ऐसी ही गुज़र रही थी, ऊँघते-आंघते आधी आखें खोलकर बाबाजी का प्रवचन सुनती।  बाबाजी कह रहे थे कि कमाई का दस प्रतिशत उनकी कोष में जमा करा दीजिये। मेरे मुंह से निकल गया, "लो भाई, बाबाजी के श्रद्धालुओं के लिए नया इनकम टैक्स " माँ बगल में बैठी थी, एक तड़ी माथे पर जड़ दी, और मेरे मुँह से फिर निकल गया "और साथ ही पाएं माता का आशीर्वाद, मुफ्त,मुफ्त,मुफ्त।" इसी के साथ हम फिर से बाबाजी के प्रवचनो में लीन हो गए। तीसरे दिन जब आँखें मिचती मैं सुबह उठी तो लगा काश आज बिजली चली जाए, एक दिन तो मैं चैन कि नींद सो सकूँ। जिंदगी झंड हो गयी थी, काम के दिन काम और छुट्टियों में बाबाजी के प्रवचन।  और उसपर माँ रे माँ (बाप रे बाप कि जगह आज कल विषम परिस्थितियों में माँ रे माँ मेरा चाहिता शब्द हो गया था। ) 

ख़ैर, बाबाजी आज भी बोले, मेरे ज्ञान के चक्षु खोले, मेरे अंदर से कविता फुट रही थी, मेरी सुबह कि प्यारी नींद छूट रही थी। :P :D :) आज बाबाजी के कुछ अनुयायी कहते हैं, "बाबाजी, मेरा जीवन कष्टों से भरा था पर जबसे टीवी पर आपको सुनने लगा, मेरे जीवन की समस्याओं का समाधान होने लगा है। आज आपके साक्षात् दर्शन भी हो गए।" इसपर बाबाजी बड़ी सरलता से पुष्टिकरण करते हुए कहते हैं, "आप तो यहाँ आ गए, कृपा तो जानी ही है, जो लोग टीवी भी देखते हैं उनपर भी बाबाजी की कृपा जानी शुरू हो जाती है।  अब मेरे मन का गुबार मन में बंद न रह सका।  मैंने कहा " बाबाजी की कृपा सूरज की किरणो जैसी हैं, खिड़की खोलो तो पड़ ही जाएँगी, वैसे ही टीवी खोलो तो कृपा पड़ ही जायेगी।" ये माँ के सब्र की अति थी, वो पुरे दिन मुझसे नाराज़ रही और मेरी छुट्टियों का बेड़ा गर्क हो गया। 

पास के बड़े शहर में बाबाजी का दरबार लगने वाला था और माँ ने ज़िद पकड़ ली कि उसे जाना ही है।  मैंने उसे समझाया, पर सच तो ये है कि बाहर इंसान अपनी बुध्धिजीवी होने की कितनी भी कीर्ति फैला ले, माँ के सामने कभी किसी कि चली है क्या? मैंने भी टोल फ्री नंबर पर फ़ोन कर सभा में जाने कि जानकारी ली, पता चला कि पीछे कि सीट क १००० रूपए, बिच के ३००० और आगे के ५००० और बाबाजी से पर्सनल अपॉइंटमेंट के २५०००। 
रहा न गया तो मैंने भी पूछ लिया, १-२ लाख में डायरेक्ट भगवान् जी से साक्षात्कार भी करवाते हैं क्या? दूसरी तरफ से फ़ोन रख दिया गया।मैंने सोचा अच्छा कारोबार है, हम तो बेकार में ही सारा दिन दफ्तर में कलम घसते हैं।  मैंने माँ को समझाने की कोशिश की कि जब टीवी से कृपा आ ही रही है तो वहाँ जाने कि क्या जरुरत है, पर मेरी सुनने वाला कौन था। आखिर मुझे टिकट करवानी पड़ी। 

दो दिन बाद मुझे वापिस दफ्तर ज्वाइन करना था सो मैं अगली सुबह घर से अपने गंतव्य के लिए निकल पड़ी।  कुछ दिनों बाद न्यूज़ चैनल्स से बाबाजी के बारे में काफी कुछ सुनने को मिला।  मैंने भी मौके पे चौका मारा और माँ को फ़ोन करके समझाया कि इन सब में न पड़ा करे।  पर कल ही माँ का फिर फ़ोन आया , किसी नए बाबा के गुणगान कर रही थी।  मैंने भी बड़ी धीरता से कहा - अच्छी ठगई लगा रखी है बाबाओं ने भी। 

इसपर मुझे ओ माय गॉड का वो सीन फिर याद आ गया, जब सारे ढोंगी पंडित मिलकर काँजी
(परेश रावल) को भगवान बना देते हैं, "जय काँजी वाला प्रभु जय काँजी वाला " की भजने गाते हैं और कोई कहता है - ये ४०० करोड़ तो एक साल में वसूल हो जाएगा, मार्केट में नया भगवान् जो आया है। 

ऐसे लोग जो इतना चढ़ावा देते हैं, उनसे एक प्रश्न है, क्या भगवन आपके चढ़ावे के भूखे हैं ? किसी कि कही हुई वो दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं - " चढ़ती थी उस मज़ार पर चादरें बेशुमार, बहार बैठा वो गरीब सर्दी से मर गया। "



शनिवार, 4 जनवरी 2014

कहानी: अंतिम विदा (Antim Vida)

अभी कुछ दिनों पहले हमारे आँगन में लगा वो बरसों पुराना आम का पेड़ गिर गया। घर के सारे लोग भौंचक से रह गए थे इस घटना पर।  पर लगा, शायद अब उसमे जीवन बचा ही नहीं था, शायद अब उसे रुखसत लेनी ही थी।

हमारे घर के आगे के हिस्से कि थोड़ी सी ज़मीन खाली थी। यहीं हुआ करता था कभी वो आम का पेड़। विशाल सा, खूब छाया देने वाला, बहुत हरा-भरा। गर्मियों के मौसम में फलों से बिल्कुल लद जाया करता था।  हम खूब कच्ची कैरियां खाया करते। आम कि चटनी, अचार, लौंजी, इतने स्वादिस्ट बनते कि याद भी करो तो मुँह में पानी आ जाए।  पेड़ पर जैसे ही आम पकने लगते तो हमारा तो जैसे एक वक़्त का भी खाना इनके बिना पूरा न होता था। वैसे तो हम सभी घरवालों को इस पेड़ से बहुत ज्यादा लगाव था पर इस पेड़ से सबसे अधिक आत्मीयता मेरी दादी को थी।  इसे दादा-दादी ने उनके विवाह कि ५०वीं वर्षगाँठ पर मिलकर लगाया था। जीवन के उस पड़ाव पर जब उन्होंने पांच दशक एक दूसरे के साथ गुज़ार लिए थे, अब उन्हें इस पेड़ के रूप में एक और ग़वाह मिल गया था इस साथ का। बड़े ही नाज़ों से पाला था उन दोनों ने उसे। धीरे-धीरे बड़ा किया था और वो पेड़ भी उन दोनों की प्रगाढ़ निस्छल प्रेम की छाँव में मानो स्वयं की किस्मत पर इतराता निरंतर बढता रहा, फलता रहा। जैसे ही पेड़ थोडा बड़ा होने लगा था, दादा-दादी घंटों उसकी छाया में गुज़ारा करते थे, मानो तीनों न जाने क्या-क्या और कितनी बातें किया करते थे। दादा-दादी की अनेकानेक यादें जुड़ गयीं थी उस पेड़ से। जब उस पेड़ की शाखाएं बहुत मज़बूत हो गईं, तब दादा जी ने एक झूला भी लगाया था उसपर।  वैसे तो अक्सर मैं और मेरी बहन ही झूला करते थे उसपर, लेकिन कभी-कभी दादा जी ज़िद करके दादी को भी बिठा दिया करते थे। वो पेड़ जैसे हम सभी के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया था।

अभी कुछ वर्ष पहले जब दादाजी की मृत्यु हुई तो लगा जैसे हमारा संसार सा बिखर गया। दादी बेहद गुमसुम  सी हो गयी थीं। समय के साथ हम सब ने अपने आप को संभाल तो लिया मगर उस पेड़ के साथ दादी माँ की आत्मीयता ने जैसे एक नया चरम छू लिया था। दादी कहती थीं कि वो पेड़ उन्हें दादाजी के  साथ बिताये आखिरी दिनों की याद दिलाता है और अब वो अपनी बची खुची जिंदगी उन्ही यादों में जीना चाहती हैं। अब वो घंटों उसकी छाया में बैठा करतीं और वो पेड़ भी जैसे उनकी आत्मीयता, उनके साथ को तरसता था।  ऐसा लगता था मानो दादा जी कि रूह उसमे बस गयी हो।  जब भी दादी उसके पास जातीं, एक अलग ही दुनिया में खो जातीं थीं।

दादा जी के देहांत के देढ़ साल बाद दादी भी चल बसीं।  धीरे-धीरे समय बीता और हम सब भी अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए। पर उस पेड़ कि आत्मा कहीं खो सी गई थी। माँ पूरे जी-जान से उसकी देखभाल करती पर शायद उसका जीवन श्रोत ही सुख गया था।  लगता था जैसे पूरा दिन वो किसी का इंतज़ार करता कि कोई घंटों उसके पास बैठ कर उन्ही पुराने दिनों को जिए पर उसकी यह आशा हर दिन बस निराशा में बदलती।  पिछले वर्ष जब गर्मियां आयीं तो उसपर फल बहुत कम आए। बारिश भी गिरी पर उसपर सावन का वो हरा रंग न चढ़ा जो हर बार चढ़ा करता था।  इस बार तो किसी पक्षी ने भी अपना बसेरा नहीं डाला उसपर। देखते ही देखते आम का वो सघन फलदार छायादार वृक्ष कब ठूंठ में बदल गया, पता ही नहीं चला।  हमने बहुत कोशिश कि उसे बचने की, हरा भरा बनाने की पर हमारी कोशिशें व्यर्थ ही जा रही थीं।

इस वर्ष बहुत भीषण गर्मी पड़ी।  पेड़ की सब टहनियाँ टूट-टूट कर यहाँ-वहाँ गिर रहीं थीं। एक रोज़ बहुत तेज़ लहर चल रही थी, झुलसा देने वाली लहर।  उसके अलगे दिन जब सुबह हम उठे, तो उस पेड़ ने अपनी जड़ो को छोड़कर ज़मीन और दीवारों का टेका ले लिया था। हम सब भौंचक से रेह गए थे।  पर हम सब समझ गए थे कि शायद अब उसे विदा देने का समय आ गया था।  आज लगा, कि सचमुच कितने अद्भुत, कितने गहरे होते हैं प्रेम के, आत्मीयता के सम्बंध जो किसी को भी खुद से ऐसे बाँध देते हैं जैसे अपनी साँसों की, जीवन की डोर से बाँध ली हो।

उस दिन हम सभी घर वालों कि आखें नम थीं। ऐसा लग रहा था जैसे ये अंतिम विदा सिर्फ उस आम के पेड़ को ही नहीं बल्कि दादा-दादी की आत्मा को भी दे रहे थे। 

बात कुछ हजम नहीं हुई.. (Baat kuch hazam nahi huyi..)

आज शनिवार है। यानि मेरे पति कि छुट्टी का दिन।  जी हाँ, ठीक समझा आपने, वो आईटी में काम करते हैं।  देखते देखते पिछले १५-२० सालों में आईटी ने अपने पैर न सिर्फ भारत में रखे हैं बल्कि ऐसे जमा लिए, कि आज की युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा इस आईटी जगत में काम करने लगा है।  ये शनिवार-रविवार की छुट्टी का चलन तो इन्होने ही बढ़ाया है, नहीं तो कहाँ आज से २० साल पहले लोगों के पास २ दिनों कि छुट्टी का मज़ा था।  अब तो पास वाले लोग इन दो दिनों में अपने अपने घर भी हो आते हैं।  और चलन चला भी तो ऐसा कि अब तो केंद्रीय सरकार के अंदर आने वाली दफ्तरों में भी दो दिन छुट्टी मिलती है।

ख़ैर, चूँकि आज छुट्टी थी तो मैंने और मेरे पति ने सुबह उठकर घूमने का सोचा। वैसे तो घूमने वाले रोज़ ही घूमते हैं, सुबह की सैर सेहत के लिए बड़ी अच्छी होती है, पर मै थोड़ी आलसी स्वाभाव की हूँ :)  आज जब हम सैर का, सुबह की ताज़ी हवा का आनंद ले रहे थे तो रास्ते में कई लोग मिले, कुछ जान पहचान वाले तो कुछ अनजाने चेहरे। ऐसे ही अनजाने चेहरों में दो चेहरा था, दो महिलाएं एक छोटे बच्चे को लेकर घूम रहीं थीं।  उनके पास एक छोटा कुत्ते का बच्चा भी था। मुझे बड़ा ही आश्चार्य हो रहा था इस बात पर, कि वो छोटा बच्चा तो ट्रॉली में था पर वो कुत्ते का बच्चा उन दो में से एक महिला की गोद में था।  मैं सोच में पड़ गई, कैसा वक़्त आ गया है मनुष्य के जीवन में, कि जानवर के बच्चे को सीने से लगाये घूमते हैं और उनकी अपनी संतान को गोद में उठाने का, उसे सीने से लगाने का सुख न तो खुद ही उठाते हैं न ही अपने बच्चे को ही इस भाव का इस मातृत्व का सुख दे पाते हैं।

पर आज कल का फ़ैशन है, जहाँ देखिए माँ बाप बच्चों को ट्रॉलिओं में लेकर घूमते हैं।  वैसे मैं ये तो नहीं कहती कि ये गलत है या सही, जहाँ बात सुविधा कि है शायद सही है। न ही मै ये कहती हूँ कि जानवरो को गोद में नहीं बिठाये, बल्कि मेरा मानना है कि जो जानवरो को प्यार करते हैं, उनकी देखभाल करते हैं उनमे तो बहुत ही धीरज, और सहन शक्ति होती है, और वो बहुत ही बड़ा कार्य करते हैं। पर जानवरो को सीने से लगाकर, गोद में बिठाकर उस गोद से अपनी संतान को वंचित कर देना, उस वात्सल्य से खुद वंचित रह जाना, ये बात कुछ हजम नहीं हुई !

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

यहाँ सब अलग है (Yahan sab alag hai)

एक अरसा सा गुज़र गया है कलम उठाए, कुछ लिखे।  जब से इस बड़े शहर आयी हूँ, जैसे सोचने कि शक्ति कि सी ख़त्म हो गयी है।  कुछ ऐसा दिखता ही नहीं जो मन को छू जाए, जिसका प्रतिबिम्ब कहीं अंकित हो जाए।  मस्तिष्क में कोई ऐसा विचार नहीं आता जिसे शब्दों के ताने बाने में बुन सकूँ।

कितना अलग सा है यहाँ सब कुछ, बड़ी-बड़ी बीसियों माले कि इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, उनपर फर्राटे से चलने वाली अनगिनत गाड़ियां, हर दो मिनट में गुजरते हवाई जहाज कि आवाज़। मुझे याद है वो वक़्त जब हमारे यहाँ से कोई हवाई जहाज गुजरा करता था, कैसे हम बच्चे उसके पीछे उत्साह से चिल्लाते-शोर मचाते भागा करते थे। पर यहाँ सब अलग है।  यहाँ छोटी जगहो में बनी गगन चुम्बी इमारतें जिनमे हज़ारों कि संख्या में लोग रहते हैं। ऐसे ही एक अपार्टमेंट के एक फ्लैट में मैं भी रहती हूँ।  अब वो सब बहुत याद आता है जो कभी हमारे लिए जैसे ध्यान देने कि भी बात नहीं थी, वो दूर-दूर में रहने वाले लोग भी कितने अपने से थे, अपने मोहल्ले, दूसरे मोहल्ले, और दो गली छोड़कर रहने वाले भी सब लोगों को हम जानते थे।  पर यहाँ सब अलग है, जगह कम हो गया है पर दूरियां बहोत बढ़ गयी हैं। जहाँ अपने छोटे से शहर के चारों चौहद्दी के चाचा, मामा, ताया से लेकर रिंकी चिंकी मन्नु , मिश्राइन नानी, बिटुआ कि दादी, मंदिर वाली अम्मा, लेमचूस वाले चाचा, छोटे पिंटू कि चाची, सब एक परिवार का सदस्य मालुम पड़ते थे, एक दूसरे कि जरुरत में सब खड़े रहते थे। चाहे सुजाता दीदी की शादी हो या पप्पू भैया कि बारात, पता ही नहीं चलता था कि कौन घर का है कौन बाहर का। पर यहाँ सब कितना अलग है, यहाँ मेरे फ्लैट के बगल में रहने वाले लोगों को भी मै नहीं जानती।  चेहरा देखा हो शायद सबका, बाहर दिखे तो शायद पहचान भी लूंगी कि मेरे अपार्टमेंट वाले लोग हैं, पर कौन हैं, ये जानने में न जाने अभी कितने साल लगेंगे। यहाँ किसी को किसी से कोई दरकार नहीं। इन बड़े अपार्टमेंट कि बड़ी दीवारों ने इतनी बड़ी सरहदें तय कर दी हैं मानो दो परिवार एक दूसरे कि दुनिया में बसते ही नहीं।

अब लगता है, कितना अच्छा था वो समय, जब कभी भी खेलने का मन करता था तो मोहल्ले कि सारी सखियों को इकठ्ठा करके पीछे के मैदान में चले जाया करते थे।  कभी डेंगा-पानी, पोषम-पा, पकड़म-पकड़ाई, या बस गुड्डे गुड़िया का खेल खेला करते थे। कितने साथी संगी थे हमारे। सोचती हूँ क्या अब भी होती होगी उन छोटे शहरों,गाओं और कस्बों कि संकुचित गलियों में बच्चों कि वही धमा-चौकड़ी? क्या अब भी दादियां-नानियां घरों के ओटे पर बैठकर यूँही गप्पे मारती होंगी? सावन में आज भी क्या वैसे ही चाचियाँ, ताईआं वैसे ही उन गीतो को गाया करती होंगी? अब ये सब जैसे कोई सुन्दर स्वप्न सा लगता है। फिर सोचती हूँ, क्या मिल पाएगा हमारे बच्चों को, आने वाली पीढ़ियों को ऐसा बचपन इन चौड़ी, ऊँची इमारतों के बीच? क्या होगी मेरे बच्चों या आने वाली पीढ़ियों के मन में उनके बचपन की ऐसी तस्वीरें जिन्हे वो आजीवन अपने मन से लगाये रहेंगे, जिनकी स्मृतियाँ आजीवन उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट बिखेर देंगी? या फिर वो बस कंप्यूटर पर ही गेम्स खेलकर और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही दोस्तों से चिट-चैट करके बड़े हो जाएंगे?

क्या वो भी गुनगुनायेंगे कभी सुभद्रा कुमारी चौहान का वो गीत- "बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी, गया ले गया तू जीवन की सबसे बड़ी खुशी मेरी " 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

वो ग़रीब (Wo garib)

वो रोज़ सुबह उठता है,
एस उम्मीद के साथ,
आज कुछ अच्छा काम मिलेगा,
उसके पास कोई रोज़गार नहीं,
पर वो रोज़ काम ढूँढता है।

वो रोज़ घर से निकलता है,
इसी आस में कि आज,
उसे कुछ काम मिलेगा,
घर में चार पैसे आयेंगे,
आज उसके बच्चे भी पेट भर खायेंगे ,
और उसके आँगन में खिलखिलाएंगे।

वो रोज़ सुबह उठता है,
और काम ढूंढ़ने निकल जाता है,
कभी कन्धों पर बोझ उठाता है,
कभी नाले साफ़ करता है,
कभी कहीं मज़ूरी कर लेता है,
पर कभी कभी उसे कोई काम नहीं मिलता।

पर वो निराश नहीं होता,
गर्मी, सर्दी, बारिश में वो काम ढूंढ़ता है,
ताकि शाम को घर आये,
मुट्ठी भर अनाज के साथ।

आज फिर वो घर से निकला है,
सुबह से शाम हो गई है,
न कोई काम मिला है न अनाज,
बच्चों का ख्याल जहन से जा नहीं रहा,
वो आंसुओं में भीग रहा है।

कहीं पास में कोई जलसा चल रहा है,
पचासों पकवान बने हैं जलसे में,
कचरेदान में व्यंजनो से भरे थाल फिके पड़े हैं,
शायद लोगों ने चखकर छोड़ दिए हैं,
पर उस गरीब के पास खाने को कुछ नहीं,
उसके बच्चों का रोता चेहरा आखों में नाच रहा है,
वो आज घर खाली हाथ ही लौट आया है,
बस आज उसे उस कचरेदान से भी ईर्ष्या हो रही है।

कहीं जलसे में जहाँ अमीरों ने खूब खाया और फेका,
आज उस ग़रीब के बच्चे भूखे पेट ही सो गए।


माँ तुम कहाँ हो? (Maa tum kahan ho)

माँ तुम कहाँ हो?
मेरा मन कहता है तुम यहीं कहीं हो,
पर नज़रें तुम्हे तलाश नहीं पातीं। 

तुम हमेशा तो मेरे पास थी,
मेरी आवाज़ सुनकर दौड़ती चली आती थी,
अब तुम क्यूँ नहीं आती माँ?

तुम नहीं तो यहाँ सब बेमाने है,
मतलबी इस दुनिया में बस तू सच्ची,
बाकी सब झूठे हैं, बेगाने हैं।  

थककर आती हूँ जब शाम को रोज़,
खाने की थाल पर भी व्यापार मिलता है,
कहाँ ढूँढू उस खाने को माँ,
जिसमे तुम्हारा प्यार मिलता है। 

अब कोई एक रोटी ज्यादा खाने को नहीं कहता,
कोई प्यार का हाथ सर पर नहीं रखता,
बीमार कभी जो पड़ जाऊँ,
या थक कर भूखी सो जाऊँ ,
कोई नहीं उठाता मुझे ,
कोई नहीं खिलाता मुझे। 

आखें खुलती हैं और आँसू छलक जाते हैं, 
कमरे में बस मै और मेरी वीरानी होती है। 

माँ तुम कहाँ हो,
माँ तुम क्यूँ नही हो?