शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

"औरत होने की एक कीमत होती है "

"औरत होने की एक कीमत होती है "
आज जब टीवी पर सुनी ये बात,
तो मन शंशय में पड़ गया।
हाँ, क्या सचमुच औरत होने की एक कीमत होती है?

इस देश में जहाँ गंगा को पूजा जाता है,
और भाई राखी पर बहन की रक्षा का वचन देता है,
फिर वही जब घर से निकलता है,
तो कहीं किसी की इज़्ज़त लूट जाती है,
कहीं सामूहिक बलात्कार होता है,
तब बस यही सवाल मन में बार बार आता है,
क्या उन भाइयों ने किसी को रक्षा का वचन नही दिया?

दुःख होता है सुनकर कन्या भ्रूण हत्या का वाक्या,
हम औरतों को तो जन्म के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है,
और जब घर में पैसे काम होते हैं,
तो बस भाई ही स्कूल जाता है,
दिवाली पर घर में जब एक ही मिठाई आती है,
तो भाई की थाल पर छूटे बिखरे मोतीचूर के वो चार दाने,
बहन की दिवाली का तोहफा बन जाते हैं,
जब आधी पौनी कच्ची सी उम्र में,
उसकी उम्र के लड़के गलियों में आधी सी चड्डी पहनकर पतंग के पीछे दौड़ते हैं,
वो अपने छोटे भाई बहनो की आधी छोटी सी माँ बन जाती है,
कमर पर बिठाये आधी झुकी सी उसे मोहल्ले की सैर कराती है।

वो जब बड़ी हुयी तो उसके पैरों की पाजेब बेड़ियां बन जाती हैं,
वो बाहर कैसे निकले, दम भर कर खुली सांस लेने को,
क्यूंकि बाहर कोई दरिंदा हर वक़्त किसी को लूटने की ताक में बैठा है।

शादी कर जब वो पिया के घर जाती है,
सेवा समर्पण प्रेम की एक मूरत सी बनकर,
सब कुछ छोड़कर अपने एक नए घर में,
बस थोड़े से प्रेम और अपनेपन की खोज में।
उस नए घर को वो अपना कहती है,
पर यहाँ भी उसका कोई अधिकार नही होता,
ये घर उसका ससुराल है, जो छोड़ आई वो मायका,
उसका क्या है ये उसे पता ही नहीं।

दिनभर वो गृहस्थी की चक्की में पिसती है,
या वो औरतें जिन्हे हम शसक्त महिला कहते हैं,
भाषणो में महिला शशक्तिकरण में इनके उदहारण देते है,
उनके शसक्त कंधो पर कमाने और गृहस्थी दोनों का बोझ होता है,
क्यूंकि पुरुष का मानना तो यही है,
औरत कमाये न कमाये, घर चलाना तो औरत का काम है।

सारा दिन की थकान लिए
जब वो दो घडी आराम चाहती है,
वो चाहे न चाहे, पर उसके पति की चाहत पर,
उसे उसकी सेज़ पर बिछना पड़ता है।
और कभी अगर वो बीमार पड़ जाए,
तो भी कोई उसके पास नहीं होता,
उसके सर पर हाथ नहीं फेरता,
क्यूंकि पति तो पुरुष है, ऐसे काम उसे शोभा कहाँ देते हैं।
और वो जो एक और औरत घर में रहती है,
वो तो सास है, उसके साथ भी यही हुआ था,
और वो भी यही कर रही है, जो मिला था वही वापस दे रही है।

फिर  भी ये उठकर कमर कस्ती है,
पति के लिए पकवान बनाने,
बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने,
फिर खुद भी तो ऑफिस जाना है,
क्यूंकि घर की इएमआई भी तो देनी है।

सब झेल जाती हैं ये औरतें,
फिर भी दुआओं में सबकी ख़ुशी और सलामती मांगती हैं,
और अपने लिए बस एक छोटी सी बात,
की अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो,
क्यूंकि साहब, औरत होने की एक कीमत होती है।



एक और प्रयास

मंजिल के करीब आकर लौट जाना, 
बहुत अखरता है उस शिखर का छूट जाना,
थक जाते हैं जब चल चल कर ये पाँव,
मुश्किल हो जाता है तब आगे बढ़ पाना। 

पर फिर मैं नज़रें उठती हूँ,
सामने शिखर की ओर देखती हूँ,
देखती हूँ अपने सपने  को,उसकी चमक को,
फिर उत्साह सा भर जाता है कुछ कर गुजरने को,
मेरा मन ठान लेता है, एक और कदम बढ़ने को,
एक और प्रयास करने को, 
मेरा मन ठान लेता है, फिर उस शिखर की ओर चढ़ने को। 

क्यूंकि गिरना तो फितरत है इंसान की,
तूफानों में दीवारें ढहती हैं जैसे किसी कमज़ोर से मकान की,
क्यूंकि हार तो जीत का दर्पण है,
उठकर फिर प्रयास करना ही तो जीवन है। 

क्यूंकि गिरे तो लाखों हैं  लक्ष्य की  होड़ में,
पर मैं अलग हूँ, क्यूंकि मुझे हारना नहीं,
मैं अलग हूँ क्यूंकि मुझे फिर उठना है,
एक बार और प्रयास करना है।