बुधवार, 8 जनवरी 2014

इससे पहले कि जीवन हाथों से फिसल जाए (Is se pehle ki jivan haathon se fisal jaaye)

 हम अकसर जीवन भर कुछ न  कुछ पाने की होड़ में लगे रहते हैं। कभी विदेश में शिक्षा, कभी  नौकरी, कभी तरक्की , कभी घर, कभी बड़ी कार, कभी कुछ और।पर इन चीज़ों का जीवन में क्या और कितना महत्त्व है, इस सवाल पर आज थोड़ा विचार करने का मन कर रहा है।  कल मैं अपने एक मित्र का ब्लॉग पढ़ रही थी जिसमे उन्होंने एक सिनेमा दसविदानियाँ से प्रेरित होकर इस बात का विश्लेशण किया कि उनके जीवन में घट रही वर्त्तमान घटनाओं को संचालित करने का प्रेरणा स्रोत क्या है और अगर उन्हें पता चले कि उनके जीवन  में कुछ ही दिन शेष बचे हैं  तो वो कौन सी इच्छाएँ हैं  जिन्हें वो अपनी मृत्यु के पहले पूरी करना चाहेंगे और  आश्चर्य  की  बात थी कि उन्होंने पाया कि आज उनका जीवन जिन घटनाओं या  इच्छाओं से प्रेरित हो रहा था,आज जहाँ वो काफी चीज़ें किसी को प्रभावित करने के लिए कर रहे थे, जीवन की  एक बहुत  सीमीत अवधि में, जीवन के अंतिम  क्षणों में  दरअसल उनका कोई महत्त्व ही नहीं था।(उनके शब्दों में कहें तो "I swear, you wont want to impress anybody, when you know, you are to die in few days.") बल्कि ऐसी अवस्था में वो  जीवन से बिल्कुल ही भिन्न अपेक्षाएं  रखते थे।

ऐसा हम मनुष्यों के जीवन में बहुत ही सामान्यतः रूप से होता रहता है।  अकसर हम जीवन के किसी पड़ाव या अवधि का महत्त्व, अर्थ और मक़सद तब समझ पाते हैं जब जीवन का वो पड़ाव, वो दौर या तो गुज़र चूका होता है या अपने आखिरी क्षणों में होता है।  शायद इसीलिए किसी ने कहा है कि मनुष्य गलतियों का भंडार है। जब जो पास होता है तब उसके महत्त्व का अहसास नहीं होता और जब वो दूर हो जाता है तब जाकर उसकी अहमियत पता चलती है।  उदाहरणतय हमारा बचपन , जब बच्चे थे तो बड़े होने का मन करता था। बड़े लोगों के प्रभुत्व को देखकर लगता था कि कितना अच्छा होता अगर हम भी बड़े होते, बस अपनी ही अपनी चलाते।  पढ़ना न पड़ता, सबकी बात न सुननी पड़ती, सब हमारी बात सुनते। पर आज जब बड़े हो गए, तब समझ आया कि क्या दिन थे वो बचपन के।  बेफिक्री, आज़ादी, न कोई जिम्देदारी न ज़वाबदेही। न कोई चिंता, न दुनिया समाज कि सुध , न जीवन के इस भागम-भाग में कहीं पीछे रह जाने का डर। जब मन किया खेलने चले गए, बारिश में बाँहें खोल के भीग लिए, खेल में धूल धुरसित हो लिए, दोस्तों से जब चाहे लड़े, जब चाहे मिल लिए, तब कोई अहम् की दीवार नहीं आया करती थी दोस्तों के बीच। आज की तरह सोचना न पड़ता था कि कैसे माफ़ी मांगे, कैसे झुकें, कैसे बात करें, किसकी गलती थी इस बात से कोई फर्क न पड़ता था। बस एक स्वछंद पंक्षी की तरह अपनी ही धुन में उड़ा करते थे। आज भी  जब उन पलों कि याद आती है तो एक मुस्कान स्वतः ही चेहरे पर बिखर जाती है। कुछ ऐसा ही महसूस होता है मुझे अपने इंजीनियरिंग के दिनों के लिए भी। जब कॉलेज में दाखिला हुआ था तो कितना लम्बा समय लगता था चार वर्ष। पर कॉलेज के वो चार साल कब पंख लगाकर फुर्र हो गए पता ही नहीं चला।  अब पीछे मुड़कर देखो तो लगता है कि जैसे उन चार सालों में कुछ किया ही नहीं।  कितना कुछ कर सकते उस समय में पर समय कब सूखे रेत की तरह हाथों से फिसल गया, पता ही नहीं चला। ऐसा लग रहा है जैसे कितना बदल गया है सब। आज एक डर सा लग रहा है, कहीं पूरा जीवन ही हाथों से फिसल न जाए और हम ये सोचते रह जाए कि इस जीवन में किया क्या?

अपने इन्ही मित्र के ब्लॉग से प्रेरित होकर जब मैंने भी इन्ही की भांति अपने जीवन का विश्लेषण किया तो मुझे भी यही लगा कि आज जिन चीज़ो को पाने कि होड़ में मैं लगी हूँ, शायद जीवन के आखिरी पड़ाव पर इनका कोई महत्त्व ही न होगा।  दफ्तर के काम में उत्कृष्टता पाना, अधिकाधिक पदोन्नति, नयी बड़ी कार लेना, अच्छा बड़ा 3 कमरे वाला फ्लैट लेना, थोडा वजन कम करना, आखिर इन बातों में से कौन सी बात ऐसी होगी जो जीवन के आखिरी पलों तक मुझे संतुष्टी और सुख का अनुभव कराएगी, और उत्तर यही मिला कि शायद इनमे से कुछ नहीं। तो आखिर क्या हो जीवन का लक्ष्य? अब लगता है कि एक बार मिले इस जीवन को इन भौतिकताओं, इन क्षणिक सुखो का उपभोग करने में गँवा दिया तो शायद मैं आज दूसरों की नज़र में एक हाई प्रोफाइल, हाइली सोशल, एडवांस्ड, कम्पीटेंट  का दर्ज़ा तो पा लूंगी मगर क्या ये सचमुच मेरे ह्रदय और आत्मा के लिए सुखकारी होंगे? मृत्यु शैया पर लेटी जब मेरे पुरे अतीत का चलचित्र मेरी आखों के सामने घूमेगा तब क्या इन चीज़ों, उपलब्धियों की याद भी आएगी मुझे? अब लगता है कि इन क्षणभंगुर सुखो को क्षण भर दरकिनार कर अगर दो पल दूसरों के सुख-दुःख में शरीक न हुए तो क्या किया?  किसी रोते चेहरे को हँसी न दी तो क्या किया? किसी भूखे कि थाली में दो रोटी न रखी तो क्या किया? किसी गैर को सीने से लगाकर अपना न बनाया तो क्या किया? किसी मासूम बच्चे कि आखों में भविष्य के सपने न भरे तो क्या किया? पूर्णतः सक्षम होकर किसी असक्षम का सहारा न बने तो क्या किया?

मेरे मित्र की भांति ही आज मैं भी सोची कि अगर सचमुच अगर मुझे पता चले की मेरे जीवन में भी अब कुछ ही दिन शेष बचें हैं तो मैं मरने से पहले क्या करना चाहूँगी, और तब जीवन के सही लक्ष्य मिले, वो लक्ष्य, मेरी वो इच्छाएं, जो शायद मेरे आखिरी समय तक मेरे साथ रहेंगे, जिनकी पूर्ति का खुशी उस पड़ाव पर भी मुझे सुख और संतोष देगा। शायद इससे पहले की पूरा जीवन सचमुच हाथों से फिसल जाए, मैं अपनी ये इच्छाएं अवश्य पूरी करना चाहूंगी और तभी मैं कहना चाहूंगी  इस दुनिया को दसविदानियाँ यानि अलविदा।


(आभार : श्री नितेश गुप्ता जी का जिनके ब्लॉग से प्रेरित होकर मैंने ये ब्लॉग लिखा , http://das-vidaniya.blogspot.in/2009/05/dasvidaniya.html )










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