शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

यहाँ सब अलग है (Yahan sab alag hai)

एक अरसा सा गुज़र गया है कलम उठाए, कुछ लिखे।  जब से इस बड़े शहर आयी हूँ, जैसे सोचने कि शक्ति कि सी ख़त्म हो गयी है।  कुछ ऐसा दिखता ही नहीं जो मन को छू जाए, जिसका प्रतिबिम्ब कहीं अंकित हो जाए।  मस्तिष्क में कोई ऐसा विचार नहीं आता जिसे शब्दों के ताने बाने में बुन सकूँ।

कितना अलग सा है यहाँ सब कुछ, बड़ी-बड़ी बीसियों माले कि इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, उनपर फर्राटे से चलने वाली अनगिनत गाड़ियां, हर दो मिनट में गुजरते हवाई जहाज कि आवाज़। मुझे याद है वो वक़्त जब हमारे यहाँ से कोई हवाई जहाज गुजरा करता था, कैसे हम बच्चे उसके पीछे उत्साह से चिल्लाते-शोर मचाते भागा करते थे। पर यहाँ सब अलग है।  यहाँ छोटी जगहो में बनी गगन चुम्बी इमारतें जिनमे हज़ारों कि संख्या में लोग रहते हैं। ऐसे ही एक अपार्टमेंट के एक फ्लैट में मैं भी रहती हूँ।  अब वो सब बहुत याद आता है जो कभी हमारे लिए जैसे ध्यान देने कि भी बात नहीं थी, वो दूर-दूर में रहने वाले लोग भी कितने अपने से थे, अपने मोहल्ले, दूसरे मोहल्ले, और दो गली छोड़कर रहने वाले भी सब लोगों को हम जानते थे।  पर यहाँ सब अलग है, जगह कम हो गया है पर दूरियां बहोत बढ़ गयी हैं। जहाँ अपने छोटे से शहर के चारों चौहद्दी के चाचा, मामा, ताया से लेकर रिंकी चिंकी मन्नु , मिश्राइन नानी, बिटुआ कि दादी, मंदिर वाली अम्मा, लेमचूस वाले चाचा, छोटे पिंटू कि चाची, सब एक परिवार का सदस्य मालुम पड़ते थे, एक दूसरे कि जरुरत में सब खड़े रहते थे। चाहे सुजाता दीदी की शादी हो या पप्पू भैया कि बारात, पता ही नहीं चलता था कि कौन घर का है कौन बाहर का। पर यहाँ सब कितना अलग है, यहाँ मेरे फ्लैट के बगल में रहने वाले लोगों को भी मै नहीं जानती।  चेहरा देखा हो शायद सबका, बाहर दिखे तो शायद पहचान भी लूंगी कि मेरे अपार्टमेंट वाले लोग हैं, पर कौन हैं, ये जानने में न जाने अभी कितने साल लगेंगे। यहाँ किसी को किसी से कोई दरकार नहीं। इन बड़े अपार्टमेंट कि बड़ी दीवारों ने इतनी बड़ी सरहदें तय कर दी हैं मानो दो परिवार एक दूसरे कि दुनिया में बसते ही नहीं।

अब लगता है, कितना अच्छा था वो समय, जब कभी भी खेलने का मन करता था तो मोहल्ले कि सारी सखियों को इकठ्ठा करके पीछे के मैदान में चले जाया करते थे।  कभी डेंगा-पानी, पोषम-पा, पकड़म-पकड़ाई, या बस गुड्डे गुड़िया का खेल खेला करते थे। कितने साथी संगी थे हमारे। सोचती हूँ क्या अब भी होती होगी उन छोटे शहरों,गाओं और कस्बों कि संकुचित गलियों में बच्चों कि वही धमा-चौकड़ी? क्या अब भी दादियां-नानियां घरों के ओटे पर बैठकर यूँही गप्पे मारती होंगी? सावन में आज भी क्या वैसे ही चाचियाँ, ताईआं वैसे ही उन गीतो को गाया करती होंगी? अब ये सब जैसे कोई सुन्दर स्वप्न सा लगता है। फिर सोचती हूँ, क्या मिल पाएगा हमारे बच्चों को, आने वाली पीढ़ियों को ऐसा बचपन इन चौड़ी, ऊँची इमारतों के बीच? क्या होगी मेरे बच्चों या आने वाली पीढ़ियों के मन में उनके बचपन की ऐसी तस्वीरें जिन्हे वो आजीवन अपने मन से लगाये रहेंगे, जिनकी स्मृतियाँ आजीवन उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट बिखेर देंगी? या फिर वो बस कंप्यूटर पर ही गेम्स खेलकर और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही दोस्तों से चिट-चैट करके बड़े हो जाएंगे?

क्या वो भी गुनगुनायेंगे कभी सुभद्रा कुमारी चौहान का वो गीत- "बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी, गया ले गया तू जीवन की सबसे बड़ी खुशी मेरी " 

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