शनिवार, 4 जनवरी 2014

बात कुछ हजम नहीं हुई.. (Baat kuch hazam nahi huyi..)

आज शनिवार है। यानि मेरे पति कि छुट्टी का दिन।  जी हाँ, ठीक समझा आपने, वो आईटी में काम करते हैं।  देखते देखते पिछले १५-२० सालों में आईटी ने अपने पैर न सिर्फ भारत में रखे हैं बल्कि ऐसे जमा लिए, कि आज की युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा इस आईटी जगत में काम करने लगा है।  ये शनिवार-रविवार की छुट्टी का चलन तो इन्होने ही बढ़ाया है, नहीं तो कहाँ आज से २० साल पहले लोगों के पास २ दिनों कि छुट्टी का मज़ा था।  अब तो पास वाले लोग इन दो दिनों में अपने अपने घर भी हो आते हैं।  और चलन चला भी तो ऐसा कि अब तो केंद्रीय सरकार के अंदर आने वाली दफ्तरों में भी दो दिन छुट्टी मिलती है।

ख़ैर, चूँकि आज छुट्टी थी तो मैंने और मेरे पति ने सुबह उठकर घूमने का सोचा। वैसे तो घूमने वाले रोज़ ही घूमते हैं, सुबह की सैर सेहत के लिए बड़ी अच्छी होती है, पर मै थोड़ी आलसी स्वाभाव की हूँ :)  आज जब हम सैर का, सुबह की ताज़ी हवा का आनंद ले रहे थे तो रास्ते में कई लोग मिले, कुछ जान पहचान वाले तो कुछ अनजाने चेहरे। ऐसे ही अनजाने चेहरों में दो चेहरा था, दो महिलाएं एक छोटे बच्चे को लेकर घूम रहीं थीं।  उनके पास एक छोटा कुत्ते का बच्चा भी था। मुझे बड़ा ही आश्चार्य हो रहा था इस बात पर, कि वो छोटा बच्चा तो ट्रॉली में था पर वो कुत्ते का बच्चा उन दो में से एक महिला की गोद में था।  मैं सोच में पड़ गई, कैसा वक़्त आ गया है मनुष्य के जीवन में, कि जानवर के बच्चे को सीने से लगाये घूमते हैं और उनकी अपनी संतान को गोद में उठाने का, उसे सीने से लगाने का सुख न तो खुद ही उठाते हैं न ही अपने बच्चे को ही इस भाव का इस मातृत्व का सुख दे पाते हैं।

पर आज कल का फ़ैशन है, जहाँ देखिए माँ बाप बच्चों को ट्रॉलिओं में लेकर घूमते हैं।  वैसे मैं ये तो नहीं कहती कि ये गलत है या सही, जहाँ बात सुविधा कि है शायद सही है। न ही मै ये कहती हूँ कि जानवरो को गोद में नहीं बिठाये, बल्कि मेरा मानना है कि जो जानवरो को प्यार करते हैं, उनकी देखभाल करते हैं उनमे तो बहुत ही धीरज, और सहन शक्ति होती है, और वो बहुत ही बड़ा कार्य करते हैं। पर जानवरो को सीने से लगाकर, गोद में बिठाकर उस गोद से अपनी संतान को वंचित कर देना, उस वात्सल्य से खुद वंचित रह जाना, ये बात कुछ हजम नहीं हुई !

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