गुरुवार, 2 जनवरी 2014

वो ग़रीब (Wo garib)

वो रोज़ सुबह उठता है,
एस उम्मीद के साथ,
आज कुछ अच्छा काम मिलेगा,
उसके पास कोई रोज़गार नहीं,
पर वो रोज़ काम ढूँढता है।

वो रोज़ घर से निकलता है,
इसी आस में कि आज,
उसे कुछ काम मिलेगा,
घर में चार पैसे आयेंगे,
आज उसके बच्चे भी पेट भर खायेंगे ,
और उसके आँगन में खिलखिलाएंगे।

वो रोज़ सुबह उठता है,
और काम ढूंढ़ने निकल जाता है,
कभी कन्धों पर बोझ उठाता है,
कभी नाले साफ़ करता है,
कभी कहीं मज़ूरी कर लेता है,
पर कभी कभी उसे कोई काम नहीं मिलता।

पर वो निराश नहीं होता,
गर्मी, सर्दी, बारिश में वो काम ढूंढ़ता है,
ताकि शाम को घर आये,
मुट्ठी भर अनाज के साथ।

आज फिर वो घर से निकला है,
सुबह से शाम हो गई है,
न कोई काम मिला है न अनाज,
बच्चों का ख्याल जहन से जा नहीं रहा,
वो आंसुओं में भीग रहा है।

कहीं पास में कोई जलसा चल रहा है,
पचासों पकवान बने हैं जलसे में,
कचरेदान में व्यंजनो से भरे थाल फिके पड़े हैं,
शायद लोगों ने चखकर छोड़ दिए हैं,
पर उस गरीब के पास खाने को कुछ नहीं,
उसके बच्चों का रोता चेहरा आखों में नाच रहा है,
वो आज घर खाली हाथ ही लौट आया है,
बस आज उसे उस कचरेदान से भी ईर्ष्या हो रही है।

कहीं जलसे में जहाँ अमीरों ने खूब खाया और फेका,
आज उस ग़रीब के बच्चे भूखे पेट ही सो गए।


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