शनिवार, 4 जनवरी 2014

कहानी: अंतिम विदा (Antim Vida)

अभी कुछ दिनों पहले हमारे आँगन में लगा वो बरसों पुराना आम का पेड़ गिर गया। घर के सारे लोग भौंचक से रह गए थे इस घटना पर।  पर लगा, शायद अब उसमे जीवन बचा ही नहीं था, शायद अब उसे रुखसत लेनी ही थी।

हमारे घर के आगे के हिस्से कि थोड़ी सी ज़मीन खाली थी। यहीं हुआ करता था कभी वो आम का पेड़। विशाल सा, खूब छाया देने वाला, बहुत हरा-भरा। गर्मियों के मौसम में फलों से बिल्कुल लद जाया करता था।  हम खूब कच्ची कैरियां खाया करते। आम कि चटनी, अचार, लौंजी, इतने स्वादिस्ट बनते कि याद भी करो तो मुँह में पानी आ जाए।  पेड़ पर जैसे ही आम पकने लगते तो हमारा तो जैसे एक वक़्त का भी खाना इनके बिना पूरा न होता था। वैसे तो हम सभी घरवालों को इस पेड़ से बहुत ज्यादा लगाव था पर इस पेड़ से सबसे अधिक आत्मीयता मेरी दादी को थी।  इसे दादा-दादी ने उनके विवाह कि ५०वीं वर्षगाँठ पर मिलकर लगाया था। जीवन के उस पड़ाव पर जब उन्होंने पांच दशक एक दूसरे के साथ गुज़ार लिए थे, अब उन्हें इस पेड़ के रूप में एक और ग़वाह मिल गया था इस साथ का। बड़े ही नाज़ों से पाला था उन दोनों ने उसे। धीरे-धीरे बड़ा किया था और वो पेड़ भी उन दोनों की प्रगाढ़ निस्छल प्रेम की छाँव में मानो स्वयं की किस्मत पर इतराता निरंतर बढता रहा, फलता रहा। जैसे ही पेड़ थोडा बड़ा होने लगा था, दादा-दादी घंटों उसकी छाया में गुज़ारा करते थे, मानो तीनों न जाने क्या-क्या और कितनी बातें किया करते थे। दादा-दादी की अनेकानेक यादें जुड़ गयीं थी उस पेड़ से। जब उस पेड़ की शाखाएं बहुत मज़बूत हो गईं, तब दादा जी ने एक झूला भी लगाया था उसपर।  वैसे तो अक्सर मैं और मेरी बहन ही झूला करते थे उसपर, लेकिन कभी-कभी दादा जी ज़िद करके दादी को भी बिठा दिया करते थे। वो पेड़ जैसे हम सभी के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया था।

अभी कुछ वर्ष पहले जब दादाजी की मृत्यु हुई तो लगा जैसे हमारा संसार सा बिखर गया। दादी बेहद गुमसुम  सी हो गयी थीं। समय के साथ हम सब ने अपने आप को संभाल तो लिया मगर उस पेड़ के साथ दादी माँ की आत्मीयता ने जैसे एक नया चरम छू लिया था। दादी कहती थीं कि वो पेड़ उन्हें दादाजी के  साथ बिताये आखिरी दिनों की याद दिलाता है और अब वो अपनी बची खुची जिंदगी उन्ही यादों में जीना चाहती हैं। अब वो घंटों उसकी छाया में बैठा करतीं और वो पेड़ भी जैसे उनकी आत्मीयता, उनके साथ को तरसता था।  ऐसा लगता था मानो दादा जी कि रूह उसमे बस गयी हो।  जब भी दादी उसके पास जातीं, एक अलग ही दुनिया में खो जातीं थीं।

दादा जी के देहांत के देढ़ साल बाद दादी भी चल बसीं।  धीरे-धीरे समय बीता और हम सब भी अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए। पर उस पेड़ कि आत्मा कहीं खो सी गई थी। माँ पूरे जी-जान से उसकी देखभाल करती पर शायद उसका जीवन श्रोत ही सुख गया था।  लगता था जैसे पूरा दिन वो किसी का इंतज़ार करता कि कोई घंटों उसके पास बैठ कर उन्ही पुराने दिनों को जिए पर उसकी यह आशा हर दिन बस निराशा में बदलती।  पिछले वर्ष जब गर्मियां आयीं तो उसपर फल बहुत कम आए। बारिश भी गिरी पर उसपर सावन का वो हरा रंग न चढ़ा जो हर बार चढ़ा करता था।  इस बार तो किसी पक्षी ने भी अपना बसेरा नहीं डाला उसपर। देखते ही देखते आम का वो सघन फलदार छायादार वृक्ष कब ठूंठ में बदल गया, पता ही नहीं चला।  हमने बहुत कोशिश कि उसे बचने की, हरा भरा बनाने की पर हमारी कोशिशें व्यर्थ ही जा रही थीं।

इस वर्ष बहुत भीषण गर्मी पड़ी।  पेड़ की सब टहनियाँ टूट-टूट कर यहाँ-वहाँ गिर रहीं थीं। एक रोज़ बहुत तेज़ लहर चल रही थी, झुलसा देने वाली लहर।  उसके अलगे दिन जब सुबह हम उठे, तो उस पेड़ ने अपनी जड़ो को छोड़कर ज़मीन और दीवारों का टेका ले लिया था। हम सब भौंचक से रेह गए थे।  पर हम सब समझ गए थे कि शायद अब उसे विदा देने का समय आ गया था।  आज लगा, कि सचमुच कितने अद्भुत, कितने गहरे होते हैं प्रेम के, आत्मीयता के सम्बंध जो किसी को भी खुद से ऐसे बाँध देते हैं जैसे अपनी साँसों की, जीवन की डोर से बाँध ली हो।

उस दिन हम सभी घर वालों कि आखें नम थीं। ऐसा लग रहा था जैसे ये अंतिम विदा सिर्फ उस आम के पेड़ को ही नहीं बल्कि दादा-दादी की आत्मा को भी दे रहे थे। 

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